@#~गंगा बख्श सिंह~@#
इस्लाम मूल रूप से एक अरेबियायी मजहब है। प्रत्येक मुसलमान, जो कि अरेबिया का मूल निवासी नहीं है, इस्लाम में धर्मांतरण है।
इस्लाम केवल एक अंतरात्मा या व्यक्तिगत आस्था का विषय नहीं है। यह साम्राज्यवादी मांगों की पूर्ति की भी आकांक्षा करता है।
इस्लाम में धर्मांतरण व्यक्ति का वैश्विक दृष्टिकोण भी बदल जाता है। उसके पवित्र स्थल अरब देशों में हो जाते हैं, और उसकी पवित्र भाषा अरबी हो जाती है उसका अपना इतिहास संबंधी दृष्टिकोण बदल जाता है।
वह अपने इतिहास व संस्कृति को त्याग देता है, और चाहे न चाहे, वह अरब इतिहास का एक हिस्सा बन जाता है।
एक धर्मान्तरित का, जो कुछ भी अपना है, उसे उस सबको त्यागना पड़ता है। उसके परिणामस्वरूप मानव समाजों में महान उथल-पुथल हो जाती है और 1000 वर्षों के बाद भी विवादित मसले अनिर्णीत रह सकते हैं, और ये बदलाव बार-बार हो सकते हैं।
लोगों में मानसिक प्रभाव उठते हैं कि वे क्या और कौन है? इस्लाम में धर्मांतरित देशों के लोगों में मनस्ताप और अवास्तविकतावाद पैदा हो जाते हैं। ये देश आसानी से भड़काए जा सकते हैं।” (वी.एस.नायपॉल, बियोंड बिलीफ)
“इस्लाम एक बन्द निकाय की तरह है जो मुसलमानों और ग़ैर-मुसलमानों के बीच जैसा भेद करता है, वह बिल्कुल मूर्त और स्पष्ट है।
इस्लाम का भ्रातृत्व-भाव मानवता का भ्रातृत्व-भाव नहीं है, बल्कि यह मुसलमानों का सिर्फ़ मुसलमानों से ही भ्रातृत्व-भाव है। यह बंधुत्व है, परन्तु इसका लाभ अपने ही निकाय के लोगों तक सीमित है और जो इस निकाय से बाहर हैं, उनके लिए इसमें सिर्फ़ घृणा और शत्रुता ही है।
इस्लाम का दूसरा अवगुण है कि यह सामाजिक स्वशासन की एक पद्धति है, जो किसी स्थानीय स्वशासन से मेल नहीं खाता, क्योंकि मुसलमानों की निष्ठा, जिस देश में वे रहते हैं, उसके प्रति नहीं होती बल्कि वह उनके उस धार्मिक विश्वास पर निर्भर करती है जिसका कि वे एक हिस्सा हैं। जहाँ कहीं इस्लाम का शासन है, वहीं उसका अपना विश्वास है।
दूसरे शब्दों में, इस्लाम ‘सच्चे मुसलमानों’ को भारत को अपनी मातृभूमि और हिन्दुओं को अपना निकट सम्बन्धी मानने की इजाज़त नहीं देता।” (डॉ.भीमराव रामजी अम्बेडकर, पाकिस्तान और भारत का विभाजन, पृ.337)
“पैगंबर मोहम्मद ने मानव समाज को दो वर्गों – अरब और गैर-अरब, में बांट दिया। इसमें अरब लोग शासक हैं और गैर-अरब शासित किए जाने के लिए हैं। इस्लाम इस सपने को पूरा करने का साधन है।
इस्लाम ने गैर अरबी मुसलमानों की राष्ट्रीय प्रतिष्ठा और सम्मान को अन्य किसी विपत्ति से अधिक हानि पहुंचाई है। फिर भी वे यह विश्वास करते हैं कि यह मजहब- इस्लाम समानता और मानव प्रेम का संदेशवाहक है। यह कोरी कल्पना है। (इस्लाम : एक अरब राष्ट्रीय आंदोलन, पृ. 42)
~गंगा बख्श सिंह~ राष्ट्रीय मीडिया प्रभारी ~डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी राष्ट्रीय विचार मंच (नई दिल्ली भारत)