कल्पवास का अर्थ होता है संगम के तट पर निवास कर वेदाध्ययन और ध्यान करना। प्रयाग इलाहाबाद कुम्भ मेले में कल्पवास का अत्यधिक महत्व माना गया है। कल्पवास पौष माह के 11वें दिन से माघ माह के 12वें दिन तक रहता है।
त्रिवेणी के संगम पर बसने वाली अस्थायी आध्यात्मिक नगरी में जप, तप, होम, यज्ञ, धूनी की बयार और संतों के प्रवचन आदि गतिविधियां एवं अन्य क्रिया कलाप एक मास तक तीर्थयात्रियों और कल्पवासियों को बांधे रखती हैं। यहां विभिन्न संस्कृतियां, धर्म और विभिन्न विचारधाराओं का भी संगम होता है। विभिन्न प्रांतों से आये तीर्थयात्री आपस में विचार विमर्श कर सूचनाओं एवं ज्ञान का आदान प्रदान करते हैं। यह वसुधैव कुटुम्बकम का प्रतीक है।
पापनाशिनी और मोक्षदायिनी विहंगम गंगा तट पर हाड कंपाने वाली सर्दी में पूरे एक महीने तक कल्पवासी तीन बार स्नान, जमीन पर शयन, जप, तप, होम, यज्ञ कर साधु-संतो के धूनी की मनमोहनक सुगंध में प्रवचन का श्रवण, एक समय भोजन या फलाहार कर कल्पवास करेंगे। इस अवधि में कल्पवासी या तीर्थयात्री अन्न, काला तिल,ऊन, वस्त्र एवं बर्तन आदि का दान करते हैं।
महाभारत में कहा गया है कि एक सौ साल तक बिना अन्न ग्रहण किए तपस्या करने का जो फल है, माघ मास में कल्पवास करने भर से प्राप्त हो जाता है। एक प्रसंग में मार्कंडेय धर्मराज युधिष्ठिर से कहते हैं, “राजन प्रयाग तीर्थ सब पापों को नाश करने वाला है। प्रयाग में जो भी व्यक्ति एक महीना, इंद्रियों को वश में करके स्नान-ध्यान, पूजा-पाठ, यज्ञ और संतो के सानिध्य में प्रवचन करने और श्रवण से मोक्ष प्राप्त होता है।
कल्पवास दो प्रकार का होता है। पहला चंद्रमास और दूसरा सौरमास का कल्पवास। पौष पूर्णिमा से माघी पूर्णिमा तक चंद्रमास का कल्पवास रहता है और मकर संक्रांति से कुंभ संक्रांति तक सौरमास का। कल्पवास को धैर्य, अहिंसा और भक्ति के लिए जाना जाता है।
पुराणों में ‘प्रयागराज’ को सभी तीर्थो का राजा कहा गया है। अयोध्या, मथुरा, मायापुरी, काशी, कांची, उज्जैन, और द्वारका ये सात परम पवित्र नगरी मानी जाती हैं। ये सातों तीर्थ महाराजाधिराज प्रयाग की पटरानियां हैं। इन्हीं सब कारणों से भूमण्डल के समस्त तीर्थो में प्रयागराज सर्वश्रेष्ठ है। यहां माघ मकर में प्रतिवर्ष एक महीने का बड़ा मेला लगता है। मेले में आने वाले करोड़ो श्रद्धालु पतित पावनी गंगा में आस्था की डुबकी लगाते हैं।
यहां एक महीने के कल्पवास का बहुत माहात्म्य है। मान्यता है कि स्वर्ग में निवास करने वाले देवता भी दुर्लभ मनुष्य का जन्म पाकर प्रयाग क्षेत्र में कल्पवास करने की इच्छा करते हैं। मान्यताओं के अनुसार माघ महीने में प्रयाग में न सिर्फ लोग कल्पवास करते हैं, बल्कि 33 कोटि देवी-देवता भी वहीं रहते हैं। कल्पवास करने वाले साधकों को वो किसी न किसी रूप में दर्शन देते हैं।
कल्पवास क्यों और कब से…….
कल्पवास वेदकालीन अरण्य संस्कृति की देन है। कल्पवास का विधान हजारों वर्षों से चला आ रहा है। जब तीर्थराज प्रयाग में कोई शहर नहीं था तब यह भूमि ऋषियों की तपोस्थली थी। प्रयाग में गंगा-जमुना के आसपास घना जंगल था। इस जंगल में ऋषि-मुनि ध्यान और तप करते थे। ऋषियों ने गृहस्थों के लिए कल्पवास का विधान रखा। उनके अनुसार इस दौरान गृहस्थों को अल्पकाल के लिए शिक्षा और दीक्षा दी जाती थी।
कल्पवास के नियम…….
कल्पवास की शुरुआत के पहले दिन तुलसी और शालिग्राम की स्थापना और पूजन होती है। कल्पवासी अपने टेंट के बाहर जौ का बीज रोपित करता है। कल्पवास की समाप्ति पर इस पौधे को कल्पवासी अपने साथ ले जाता है. जबकि तुलसी को गंगा में प्रवाहित कर दिया जाता है।
इस कल्पवास अवधि में जो भी गृहस्थ कल्पवास का संकल्प लेकर आया है वह पर्ण कुटी में रहता है। इस दौरान दिन में एक ही बार भोजन किया जाता है तथा मानसिक रूप से धैर्य, अहिंसा और भक्तिभावपूर्ण रहा जाता है।
यहां झोपड़ियों (पर्ण कुटी) में रहने वालों की दिनचर्या सुबह गंगा-स्नान के बाद संध्यावंदन से प्रारंभ होती है और देर रात तक प्रवचन और भजन-कीर्तन जैसे आध्यात्मिक कार्यों के साथ समाप्त होती है।
लाभ – ऐसी मान्यता है कि जो कल्पवास की प्रतिज्ञा करता है वह अगले जन्म में राजा के रूप में जन्म लेता है लेकिन जो मोक्ष की अभिलाषा लेकर कल्पवास करता है उसे अवश्य मोक्ष मिलता है।
पद्म पुराण में इसका उल्लेख है। संगम तट पर वास करने वाले को सदाचारी, शान्त मन वाला तथा जितेन्द्रिय होना चाहिए। कल्पवासी के मुख्य कार्य है:-
- तप,
- होम और
- दान।
यहां झोपड़ियों (पर्ण कुटी) में रहने वालों की दिनचर्या सुबह गंगा-स्नान के बाद संध्यावंदन से प्रारंभ होती है और देर रात तक प्रवचन और भजन-कीर्तन जैसे आध्यात्मिक कार्यों के साथ समाप्त होती है।
लाभ- ऐसी मान्यता है कि जो कल्पवास की प्रतिज्ञा करता है वह अगले जन्म में राजा के रूप में जन्म लेता है लेकिन जो मोक्ष की अभिलाषा लेकर कल्पवास करता है उसे अवश्य मोक्ष मिलता है।
प्रयागे माघ पर्यन्त त्रिवेणी संगमे शुभे।
निवासः पुण्यशीलानां कल्पवासो हि कश्यते॥- (पद्मपुरण)
तीर्थराज प्रयाग के त्रिवेणी संगम पर माघ मासभर निवास करने से पुण्य फल प्राप्त होता है। संगम तट पर एक माह की इस साधना को ‘कल्पवास’ कहा गया है।
कल्पवास के संदर्भ में माना गया है कि कल्पवासी को इच्छित फल तो मिलता ही है, उसे जन्म जन्मांतर के बंधनों से मुक्ति मिल जाती है। महाभारत में कहा गया है कि एक सौ साल तक बिना अन्न ग्रहण किए तपस्या करने का जो फल है, माघ मास में कल्पवास करने भर से प्राप्त हो जाता है।
भगवान शिव ने त्रिपुर राक्षस के वध की क्षमता कल्पवास से ही प्राप्त की थी। ब्रह्मा के मानस पुत्र सनकादि ऋषियों को कल्पवास करने से आत्मदर्शन का लाभ हुआ।
कल्पवास की अवधि……..
कल्पवास की न्यूनतम अवधि एक रात्रि की है। बहुत से श्रद्धालु जीवनभर माघ मास गंगा, यमुना और सरस्वती के संगम को समर्पित कर देते हैं। विधान के अनुसार एक रात्रि, तीन रात्रि, तीन महीना, छह महीना, छह वर्ष, 12 वर्ष या जीवनभर कल्पवास किया जा सकता है।
पुराणों में तो यहां तक कहा गया है कि आकाश तथा स्वर्ग में जो देवता हैं, वे भूमि पर जन्म लेने की इच्छा रखते हैं। वे चाहते हैं कि दुर्लभ मनुष्य का जन्म पाकर प्रयाग क्षेत्र में कल्पवास करें।
महाभारत के एक प्रसंग में मार्कंडेय धर्मराज युधिष्ठिर से कहते हैं कि राजन्! प्रयाग तीर्थ सब पापों को नाश करने वाला है। जो भी व्यक्ति प्रयाग में एक महीना, इंद्रियों को वश में करके स्नान-ध्यान और कल्पवास करता है, उसके लिए स्वर्ग का स्थान सुरक्षित हो जाता है।
कल्पवास का विधान…….
प्रयाग क्षेत्र में निवास से पहले दिन में एक बार भोजन का अभ्यास बना लेना चाहिए। प्रयाग के लिए चलने से पूर्व गणेश पूजन अनिवार्य है। मार्ग में भी व्यसनों से बचे रहें।
त्रिवेणी तट पर पहुंच कर यह संकल्प लें कि कल्पवास की अवधि में बुरी संगत और कुवचनों का त्याग करेंगे, यहां कहा जाता है कि महीनेभर संयम का पालन करने से व्यक्ति की इच्छाशक्ति दृढ़ होती है और वह आगे का जीवन सदाचार से व्यतीत करता है।
कल्पवासी को चाहिए कि निम्नलिखित मंत्र पढ़कर अपने ऊपर गंगा जल छिड़के।
मंत्र :
ॐ अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थांगतोऽपि वा।
यः स्मरेत पुण्डरीकांक्ष स बाह्याभ्यंतरः शुचि।
इस मंत्र से आचमन करें……
ॐ केशवायनमः
ॐ माधवाय नमः
ॐ नाराणाय नमः का जाप करें।
हाथ में नारियल, पुष्प व द्रव्य लेकर यह मंत्र पढ़ें। इसके बाद आचमन करते हुए गणेश, गंगा, यमुना, सरस्वती, त्रिवेणी, माधव, वेणीमाधव और अक्षयवट की स्तुति करें।
ह्वेन-सांग सम्राट हर्षवर्धन के शासनकाल में (617-647 ई.) के दौरान भारत आया था। सम्राट हर्षवर्धन ने ह्वेन-सांग को अपना अतिथि बनाया था। सम्राट हर्षवर्धन उन्हें अपने साथ तमाम धार्मिक अनुष्ठानों में ले जाया करते थे। ह्वेन-सांग ने लिखा है, ‘सम्राट हर्षवर्धन हर पांच साल बाद प्रयाग के त्रिवेणी तट पर एक बड़े धार्मिक अनुष्ठान में भाग लेते थे जहां वो बीते सालों में अर्जित अपनी सारी संपत्ति विद्वानों-पुरोहितों, साधुओं, भिक्षकों, विधवाओं और असहाय लोगों में दान कर दिया करते थे।
प्रयाग के संगम पर मकर संक्रांति और माघ में कल्पवास की परंपरा प्राचीन काल से है। इसका उल्लेख वेद और शास्त्रों में भी मिलता है। कल्पवास ऐसी साधना है, जिसके माध्यम से तीर्थराज प्रयाग में कल्पवासी महीने भर के लिए अपने सांसारिक सुख-दुख, माया-मोह, हानि-लाभ की चिंता छोडक़र सिर्फ परलोक के बारे में सोचते हैं। वह संयम और साधना के जरिए माया मोह छोडऩे का अभ्यास करते हैं।
माघ मेला और कुम्भ मेला को धरती पर श्रद्धालुओं का सबसे बड़ा शांतिपूर्ण मेला माना जाता है जिसमें जाति, पंथ या लिंग से इतर करोड़ों लोग हिस्सा लेते हैं।
वैज्ञानिक कसौटी पर कल्पवास……..
यदि वैज्ञानिक कसौटी पर कसा जाए तो पता चलता है कि हमारा शरीर जब रोग फैलाने वाले बैक्टीरिया, वायरस जैसे सूक्ष्मजीवों के संपर्क में आते हैं तो हमारा शरीर उनके खिलाफ एंटीबॉडी बनाता है। एंटीबॉडी प्रोटीन के बने वे कण हैं जो हमारे शरीर की कोशिकाओं में बनते हैं और बीमारियों से शरीर की रक्षा करते हैं। कुंभ स्नान और कल्पवास के जरिए कल्पवासियों का शरीर पहले तो प्रकृति में कल्पवास करने आए दूसरे कल्पवासियों के शरीर में उपस्थित नए रोगों और रोग फैलाने वाले सूक्ष्मजीवों के संपर्क में आते हैं। इसके परिणामस्वरूप उनके शरीरों में इन रोगों के खिलाफ एंटीबॉडीज बननी शुरू हो जाती हैं। बार-बार स्नान करने से शुरूआती दिनों में ही शरीर में बड़ी मात्रा में एंटीबॉडी बनती हैं। इसका असर यह होता है कि शरीर में रोग पनप नहीं पाता बल्कि उसके खिलाफ प्रतिरोधक क्षमता पैदा होने लगती है। इस तरह से डेंगू, चिकनगुनिया, टीबी और ऐसी दूसरी बीमारियों के खिलाफ शरीर मजबूत हो जाता है।
ॐ नमो नारायणाय नमः 🙏🏻 🚩






